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जाने शहंशाह अकबर की जीवन गाथा

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बाबर की मृत्यु के दस साल के भीतर ही सन्‌ 1530 उनके पुत्र हुमायूँ के हाथ से गद्दी निकल गई । वह जान बचाने के लिये इधर-उधर मारा मारा फिर रहा था। इसी बीच सन्‌ 1541 में हमीदा बानो से हुमायूँ की शादी हुई और सन्‌ 1542 में अकबर का जन्म अमरकोट के राणा वीरसाल के महल में हुआ था। अकबर का जन्म पूर्णिमा के दिन हुआ था इसलिए उनका नाम बदरुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया था। 

बद्र का अर्थ होता है पूर्ण चंद्रमा और अकबर उनके नाना शेख अली अकबर जामी के नाम से लिया गया था। कहा जाता है कि काबुल पर विजय मिलने के बाद उनके पिता हुमायूँ ने बुरी नज़र से बचने के लिए अकबर की जन्म तिथि एवं नाम बदल दिए थे। किवदंती यह भी है कि भारत की जनता ने उनके सफल एवं कुशल शासन के लिए अकबर नाम से सम्मानित किया था। अरबी भाषा मे अकबर शब्द का अर्थ "महान" या बड़ा होता है।

अकबर के माँ-बाप अपनी जान बचाने इरान भाग गये और अकबर अपने पिता के छोटे भाइयों के संरक्षण में रहा। पहले वह कुछ दिनों कंदहार में रहा और 1545 से काबुल में। हुमायूँ की अपने छोटे भाइयों से बराबर ठनी ही रही इसलिये चाचा लोगों के यहाँ अकबर कि स्थिति बंदी से कुछ ही अच्छी थी। यद्यपि सभी उसके साथ अच्छा व्यवहार करते थे और शायद दुलार प्यार कुछ ज्यादा ही होता था।

सन्‌ 1545 में जब हुमायूँ ने फिर से काबुल पर अधिकार कर लिया तो अकबर अपने पिता के संरक्षण में पहुंचा। लेकिन 1545-1546 की छोटी-सी अवधि में अकबर के चाचा कमरान ने काबुल पर पुनः अधिकार कर लिया था। मगर अकबर अपने माता-पिता के संरक्षण में ही रहा। उन्होंने अपने पुत्र को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने की चेष्टा की किंतु अकबर उससे विमुख ही रहा, परंपरागत पढ़ाई में उसकी बिलकुल रूची नहीं थी। परवर्ती काल में अकबर ने अपने आप को निरक्षर बताया है किंतु इस आत्मस्वीकृति में सत्यांश बस इतना है कि उसने स्वयं कभी कुछ नहीं लिखा । अपने परवर्ती जीवन में अकबर को पुस्तकों से बड़ा मोह हो गया और वह दूसरों से पढ़वाकर उन्हें सुना करता था। अपने खोये हुए राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिये हुमायूँ के अनवरत प्रयत्न अंततः सफल हुये और वह सन्‌ 1555 में हिंदुस्तान पहुंच गया किंतु सन्‌ 1556 में राजधानी दिल्ली में उसकी मृत्यु हो गई। गुरदासपुर के कलनौर नामक स्थान पर जब अकबर की ताजपोशी हुई उस समय उसकी उम्र मात्र चौदह वर्ष थी। उस समय मुगल राज्य केवल काबुल से दिल्ली तक ही फैला हुआ था। और हेमु के नेतृत्व में अफगान सेना पुनः संगठित होकर उसके सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी थी।

 राज्य की सुरक्षा का दायित्व बालक अकबर के संरक्षक बैरम खां के कंधों पर था। प्रारंभ के चार वर्षों तक बैरम खां ने ही शासन संभाला। किंतु सन्‌ 1560 में अकबर ने स्वयं सत्ता संभाल ली और बैरम खां को निकाल बाहर किया। अब अकबर के स्वयं के हाथों में सत्ता थी, यद्यपि इस तथ्य को समझने में कुछेक लोगों को काफी समय लगा। उस समय अनेक गंभीर कठनाइयाँ आईं जैसे सन 1563 में शम्सुद्दीन अतका खां की हत्या पर उभरा जन आक्रोश, 1564-65 में उज़बेक विद्रोह और सन 1566-67 मिर्ज़ा भाइयों का विद्रोह | किंतु अकबर ने बड़ी कुशलता से इन समस्याओं को हल कर लिया। अपनी कल्पनाशीलता से उसने अपने सामंतों की संख्या बढ़ाई। सन्‌ 1562 में आमेर के शासक से उसने समझौता किया | इस प्रकार राजपूत राजा भी उसकी ओर हो गये। इसी प्रकार उसने इरान से आने वालों को भी बड़ी सहयाता दी। भारतीय मुसलमानों को भी उसने अपने कुशल व्यवहार से अपनी ओर कर लिया। धार्मिक सहिष्णुता का उसने अनोखा परिचय दिया, सन 1563 में हिंदु तीर्थ स्थानों पर लगा कर हटा लिया गया । इससे पूरे राज्यवासियों को अनुभव हो गया कि वह एक परिवर्तित नीति अपनाने में सक्षम है।

 अकबर के शासन के अंत तक 1605 ई. में मुग़ल साम्राज्य में उत्तरी और मध्य भारत के अधिकाश भाग सम्मिलित थे और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्यों में से यह एक था। बादशाहों में अकबर ही एक ऐसा बादशाह था, जिसे हिन्दू-मुस्लिम दोनों वर्गों का बराबर प्यार और सम्मान मिला। उसने हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों के बीच की दूरियां कम करने के लिए Уदीन-ए-इलाहीФ नामक धर्म की स्थापना की। उसका दरबार सबके लिए हर समय खुला रहता था। उसके दरबार में मुस्लिम सरदारों की अपेक्षा हिन्दू सरदार अधिक थे। अकबर ने हिन्दुओं पर लगने वाला Уजज़िया करФ ही नहीं समाप्त किया, बल्कि ऐसे अनेक कार्य किए, जिनके कारण हिन्दू और मुस्लिम दोनों उसके प्रशंसक बने।

अकबर के शासन का प्रभाव देश की कला एवं संस्कृति पर भी पड़ा। उसने चित्रकारी आदि ललित कलाओं में काफ़ी रुचि दिखाई और उसके प्रासाद की भित्तियाँ सुंदर चित्रों व नमूनों से भरी पड़ी थीं। मुग़ल चित्रकारी का विकास करने के साथ-साथ ही उसने यूरोपीय शैली का भी स्वागत किया। उसे साहित्य में भी रुचि थी और उसने अनेक संस्कृत पाण्डुलिपियों व ग्रन्थों का फ़ारसी में तथा फ़ारसी ग्रन्थों का संस्कृत व हिन्दी में अनुवाद करवाया था। अनेक फ़ारसी संस्कृति से जुड़े चित्रों को उसने अपने दरबार की दीवारों पर भी बनवाया। अपने आरंभिक शासन काल में अकबर की हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता नहीं थी, किन्तु समय के साथ-साथ उसने अपने आप को बदला और हिन्दुओं सहित अन्य धर्मों में बहुत रुचि दिखायी।

3 अक्टूबर 1605 में अकबर को पेचिश की बीमारी हुई जिससे वे कभी ठीक नहीं हो पाए। उनकी मृत्यु 27 अक्टूबर 1605 को हुई, उसके बाद आगरा में उनकी समाधि बनाई गयी।


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