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गुप्‍त साम्राज्‍य

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  गुप्‍त साम्राज्‍य

मौर्य विघटन के बाद लम्बे समय तक भारत विभिन्न राजवंशो के अधीन रहा | इस काल में ऐसा कोई राजवंश नहीं हुआ जो भारत को एक सूत्र में बांध सके |इस काल के कुषाणों एवं सातवाहनों ने युद्ध में काफी हद तक स्थिरता लेने का प्रयत्न किया परन्तु वे असफल रहे | कुषाणों के पतन के बाद से गुप्तो के उदय के पूर्व का काल राजनैतिक दृष्टि से विकेंद्रीकरण एवं विभाजन का काल माना जाता है | मौर्योत्तर काल के उपरान्त तीसरी शताब्दी इ. में तीन राजवंशो का उदय हुआ जिसमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्वी में गुप्त वंश प्रमुख हैं। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।

 

गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था।  कुशाणों के बाद गुप्‍त साम्राज्‍य अति महत्‍वपूर्ण साम्राज्‍य था। गुप्‍त अवधि को भारतीय इतिहास का स्‍वर्णिम युग कहा जाता है। विश्व के महान इतिहासकारों ने गुप्त काल को प्राचीन भारत का “क्लासिकी युग” भी  कहा है | वास्तव में गुप्त काल में साहित्य, वास्तुकला व ललितकलाये उस उत्कृष्टतम स्तर पर पहुँच चुकी थी, की वो आगे आने वाले युगों के लिए एक आदर्श बन गयी |

 

इतिहास में गुप्त काल का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है क्यों की इस कालखंड में आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे ज्योतिष के सिद्धांत रचे गए | कालिदास ने संस्कृत में उत्कृष्टतम नाटकों की रचना करके संस्कृत भाषा साहित्य को उन्नत किया | विश्व के सर्वाधिक प्राचीन लिखित साक्ष्यों में शुमार होने वाले, पुराणों का संकलन इसी काल खंड की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी | उल्लेखनीय है की वराहमिहिर, कालिदास और धन्वन्तरी (प्रख्यात प्राचीन भारतीय चिकित्सक) सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौरत्नों में से एक थे | चीनी यात्री फाह्यान ने इसी कालखंड में भारत की यात्रा की थी, तथा अपनी यात्रा से सम्बंधित बहुमूल्य दस्तावेजों को संकलित किया था, जिसे आज भी प्राचीन भारत का इतिहास लिखने के लिए एक महत्वपूर्ण श्रोत एवं साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जाता है |

 

गुप्त राजवंश के बारे में सर्वप्रथम साक्ष्य, तथा उनकी पूरी वंशावलियां पुराणों में उल्लिखित है. इस सम्बन्ध में ‘मत्स्य पुराण’, ‘वायु पुराण’ तथा ‘विष्णु पुराणों’ के नाम उल्लेखनीय है. इसके अलावा अनेक बौद्ध तथा जैन ग्रन्थ भी है जिनसे गुप्तों के बारे में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है |

 

गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ. इनका आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश तथा बिहार में था. कालांतर में इन्होने अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा उसे भारत के पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक विस्तृत कर गुप्त साम्राज्य को भारतव्यापी साम्राज्य बना दिया. 

गुप्त वंश के आरंभ के बारे में पता नहीं चलता है। जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वो है श्रीगुप्त। श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने 500 वर्षों बाद सन् 671 से सन् 615 के बीच में किया। पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणी, प्रयाग, साकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला था। श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थी, अतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था।

 

श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। 280 ई. .से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।[

 

सन् 320 में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। गुप्त साम्राज्य की समृद्धि का युग यहीं से आरंभ होता है। चन्द्र्गुप्त के सिंहासनारोहण के अवसर पर (320ई.) इसने नवीन सम्वत (गुप्त सम्वत) की स्थापना की। चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था। यह विदेशी को विद्रोह द्वारा हटाकर शासक बना। चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (320 ई. से 350 ई. तक) था।

 

पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया।  चन्‍द्रगुप्‍त के जीवन में यह विवाह परिवर्तन लाने वाला था। उसे लिच्छिवियों से पाटलीपुत्र दहेज में प्राप्‍त हुआ। पाटलीपुत्र से उसने अपने साम्राज्‍य की आधार शिला रखी व लिच्छिवियों की मदद से बहुत से पड़ोसी राज्‍यों को जीतना शुरू कर दिया। उसने मगध (बिहार), प्रयाग व साकेत (पूर्वी उत्‍तर प्रदेश) पर शासन किया। उसका साम्राज्‍य गंगा नदी से इलाहाबाद तक फैला हुआ था। चन्‍द्रगुप्‍त को महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया गया था और उसने लगभग पन्‍द्रह वर्ष तक शासन किया। चन्द्रगुप्त ने जो सिक्के चलाए उसमें चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी के चित्र अंकित होते थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।

 

चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा, जिसने लगभग 50 वर्ष तक शासन किया। वह बहुत प्रतिभा सम्‍पन्‍न योद्धा था और बताया जाता है कि उसने पूरे दक्षिण में सैन्‍य अभियान का नेतृत्‍व किया तथा विन्‍ध्‍य क्षेत्र के बनवासी कबीलों को परास्‍त किया। समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू धर्म मत का पालन करता था। वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है। समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्‍तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्‍नति की चोटी पर जा पहुँचा था। उसका देहांत 380 ई. में हुआ जिसके बाद उसका पुत्र चन्द्गुप्त द्वितीय राजा बना।

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय 375 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने 375 से 415 ई. तक (40 वर्ष) शासन किया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ।

हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने एसा संभवतः इसलिए किया कि शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में उसको समर्थन हासिल हो जाए। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की। वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया। उसने मालवा, गुजरात व काठियावाड़ के बड़े भूभागों पर विजय प्राप्‍त की। इससे उन्‍हे असाधारण धन प्राप्‍त हुआ और इससे गुप्‍त राज्‍य की समृद्धि में वृद्धि हुई। इस अवधि के दौरान गुप्‍त राजाओं ने पश्चिमी देशों के साथ समुद्री व्‍यापार प्रारम्‍भ किया। बहुत संभव है कि उसके शासनकाल में संस्‍कृत के महानतम कवि व नाटककार कालीदास व बहुत से दूसरे वैज्ञानिक व विद्वान फले-फूले।

गुप्‍त शासन की अवनति
ईसा की 5वीं शताब्दि के अन्‍त व छठवीं शताब्दि में उत्‍तरी भारत में गुप्‍त शासन की अवनति से बहुत छोटे स्‍वतंत्र राज्‍यों में वृद्धि हुई व विदेशी हूणों के आक्रमणों को भी आकर्षित किया। हूणों का नेता तोरामोरा था। वह गुप्‍त साम्राज्‍य के बड़े हिस्‍सों को हड़पने में सफल रहा। उसका पुत्र मिहिराकुल बहुत निर्दय व बर्बर तथा सबसे बुरा ज्ञात तानाशाह था। दो स्‍थानीय शक्तिशाली राजकुमारों मालवा के यशोधर्मन और मगध के बालादित्‍य ने उसकी शक्ति को कुचला तथा भारत में उसके साम्राज्‍य को समाप्‍त किया।
 
गुप्तकाल साहित्य, कला एवं विज्ञान के उत्कर्ष का काल था. इस काल में भारतीय संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ. यह काल श्रेष्ठ शासन व्यवस्था एवं महान सम्राटों के उदय के लिए भी जाना जाता है. इस काल में राजनैतिक एकता, धार्मिक सहिष्णुता और आर्थिक समृद्धि भी अपने चरम पर थी. इतनी सारी विशेषताओं के होने की वजह से ही अधिकाशतः इतिहासकारों ने गुप्त काल को स्वर्णयुग, क्लासिकल युग, एवं पेरिक्लियन युग कहा है.
वास्तव में गुप्तकाल के शासकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास पर जो अमिट छाप छोड़ी है, उससे वो अमर हो गये है. आगे आने वाली पीढ़िया सदियों तक भारतीय इतिहास के इस युग को याद करेंगी और उसको आदर्श के रूप में पुनः स्थापित करेंगी.


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