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| # एक प्राचीन संस्कृत कथन के अनुसार #
“जब पंच सिद्धान्तो के परिणाम पुराने अवलोकनो के उलट परिणाम देने लगे, जैसे ग्रहों की कक्षा और ग्रहण इत्यादि, तो कलियुग मे, कुसुमपुर नामक स्थान मे, ज्योतिष मे प्रवीण, आर्यभट्ट के रूप मे सूर्य स्वयं अवतरित हुये।”
आर्यभट्ट ने गणित और खगोल विज्ञान मे एक अविस्मरणीय योगदान दिया है |जब संसार गिनती भी नहीं सीख पाया था, तभी इस महान व्यक्ति ने ब्रह्माण्ड के रहस्यो को खोलना आरम्भ कर दिया था। गणित और खगोल विज्ञान मे इनके कार्यो ने विश्व को एक नयी दिशा दी। इन्हे सम्मान देने के लिये, भारत ने अपने प्रथम कृत्रिम उपग्रह का नाम इन्ही के नाम पर “आर्यभट्ट” रखा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र (ISRO) द्वारा निर्मित इस उपग्रह को 19 अप्रैल 1975 को सोवियत यूनियन (अब संयुक्त राज्य रूस, USR) के कापुस्तिन यार (Kapustin Yar) से कास्मोस – 3M (Cosmos-3M) नामक लांच व्हीकल (launch vehicle) से छोडा गया था और 11 फरवरी 1992 को यह वापस पृथ्वी के वायुमण्डल मे आ गया।
एक विडम्बना है कि हम आर्यभट्ट के जन्म और जीवन के बारे मे अधिक नही जानते। आधुनिक जानकारियो के अनुसार आर्यभट्ट के बारे मे खोज की शुरुआत तब हुई जब 1874 मे एच. केर्न (H.Kern(Ed.), The Aryabhatiya with the commentary Bhatadipika of Paramesvara, E.J.Brill, Leiden, 1874.) ने आर्यभट्ट द्वारा रचित एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ “आर्यभटीय” का सम्पादन किया। इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ”कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।” भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। इस प्रकार आर्यभट्ट का जन्म 476 मे हुआ माना जाता है। परन्तु इनके जन्मस्थान के बारे मे मतभेद हैं। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की।इनकी मृत्यु 550 मे हुई थी।
•आर्यभट का योगदान
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•भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'सुवर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थितनालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।
•उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
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•आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी, उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।
•आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।
•आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।
•हालांकि यह स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा के लिये आर्यभट्ट कुसुमपुर गये और वहां काफी समय बिताया। भास्कर (629) ने कुसुमपुर को वर्तमान पटना बताया है। वहाँ पर आर्यभट्ट गुप्त साम्राज्य के समय रहे थे, जब इसका पूर्वोत्तर हुणआक्रमणकारियो द्वारा दमित था, विष्णुगुप्त से पहले, बुद्धगुप्त के राजकाल मे। बुद्धगुप्त का शासनकाल 477 से 497 तक था, और वह गुप्तवंश का आखिरी महान शासक था, तथा अपने दादा कुमारगुप्त के बाद गद्दी पर बैठा। गुप्त साम्राज्य एक बडा साम्राज्य था और बंगाल की खाडी से अरब सागर तक और दक्षिण मे नर्मदा तक फैला था। गुप्तकाल को भारतीय ज्ञान और अध्ययन के संदर्भ मे भारत का स्वर्णिम युग कहा जाता है। इसके राज्य का नाम मगध और राजधानी पाटलिपुत्र थी, जिसे आज पटना कहते है। यहाँ पर अध्ययन का एक महान केन्द्र, नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था और संभव है कि आर्यभट्ट इसके खगोल वेधशाला के कुलपति रहे हो। ऐसे प्रमाण है कि आर्यभट्ट-सिद्धान्त मे उन्होने ढेरो खगोलीय उपकरणो का वर्णन किया है।
•आर्यभट्ट ने अपने खगोलीय संस्थापनाओं मे श्रीलंका का संदर्भ लिया है और आर्यभटीय मे बहुत से स्थानो पर इसका प्रयोग किया है। Florian Cajori के अनुसार आर्यभट्ट का गणित भारतीय गणित की तुलना मे श्रीलंकाई गणित के अधिक निकट है। आर्यभट पहले आचार्य थे की जिन्होने ज्योतिषशास्त्रमें अंकगणित, बीजगणित और रेखागणितको शामील किया.
•आर्यभट्ट दशमलव पद्धति से विश्व विख्यात हो गये। अरब के विद्वानो ने 800 ई. मेँ आर्यभट्टीय का अनुवाद अरबी भाषा मेँ जीन अल् अर्जवहर नाम से किया।
ब्रह्मगुप्त जो आर्यभट्ट का आलोचक था अन्त मेँ इसी के आधार पर खण्ड खाद्यक नामक करण ग्रंथ लिखा। भास्कर प्रथम , सूर्यदेव यज्वा , परमेश्वर और नील कंठो ने टीकाएँ लिखी। वे पहले विद्वान थे जिन्होने साइन और कोसाइन को निर्दिष्ट किया।
•आर्यभट के लिखे तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- ‘आर्यभट्ट सिद्धांत‘। इस समय उसके केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।
•उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, सामानान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभट्टीय नामक ग्रन्थ में कुल 3 पृष्ठों के समा सकने वाले 33 श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा 5 पृष्ठों में 75 श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया। आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की।
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